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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह

अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4136
आईएसबीएन :00000

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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह

(प)


पंकज उपजे पंक में, सौरभ अति सुखकार।
होत महत्त्व न जन्म को, गुण कारण सुविचार॥

पंचवटी वट विटप तरु, सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु, सकल सुमंगल देत॥

पछापछी के कारने, सब जग रहा भुलान।
निर्पछ होय के हरि भजै, सोई सन्त सुजान॥

पट पाँखे भख काँकरे, सदा परेई संग।
सुखी परेवा जगत में, एकै तुही बिहंग॥

पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत।
सब सखियन में यों दिवै, ज्यों रवि शशि की जोत॥

पत्थर मत मारो इस दर्पण में तुम।
अपने को बाँधो अनुशासन में तुम॥

पद गाएँ मन हरषियाँ, साषी कहयाँ अनंद।
सो तत नाव न जाणियाँ, गल में पड़िया फंद॥

पन्नग बेलि पतिव्रता, रिति सम सुनो सुजान।
हिम रहीम बेली दही, सत जो जन दहियान॥

परदे पानी दारिया, सन्तो करो विचार।
शरमा शरमी पचि मुवा, काल घसीटनहार॥

परद्रोही परदार रत, परधन पर अपवाद।
ते नर पॉवर पापमय, देह धरे मनुजात॥

पर नारी राता फिरै, चोरी बिढ़िता खाहि।
दिवस चारि सरसा रहैं, अन्त समूला जाहि॥

परबति-परबति मैं फिरया, नैन गँवायो रोइ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातै जीवनि होइ॥

पर-भाषा पर-भाव पर, भूषण पर-परिधान।
पराधीन जन की अहै, यही पूर्ण पहिचान॥

पद्य-संग्रह परम पिता परमेश्वर हमको, दो ऐसा वरदान।
ऐसा करें प्रयत्न बने यह, धरती स्वर्ग समान॥

परसुख संपति देखि सुनि, जरहि जे जड़ बिन आगि।
तुलसी तिनके भाग ते, चलै भलाई भागि॥

परिवर्तन के बिना न होता. विभीषिका का नाश।
मूर्धन्यो जागो औरों से, रही न कोई आश॥

परिवर्तन के महापर्व का, ज्ञान यज्ञ है आज।
युग का ब्रह्मा लगा रहा है, होताओ आवाज॥

परी विपत्ति तें छूटिये, करिये जोर उपाय।
कैसे निकसे बिनु जतन, परी भौंर में नाँव॥

पर्वत ऊपर हर बहै, घोड़ा चढ़ि बसै गाँव।
बिना फूल भौंरा रस चाहै, कुछ बिरवा को नाँव॥

पल में परलय बीतिया, लोगहि लागु तमारि।
आगल सोच निवारि के, पाछल करहु गोहारि॥

पवन सुगन्धित जैसे मन को नन्दन वन कर देता।
वैसे ही गुरुदेव का दर्शन मानव दुःख हर लेता॥

पहले ही जल रही आग. ओ प्रतिभाओ संसार में।
भ्रमित करो मत और जगत को, आँधी और गुबार में॥

पाँच तत्व का पूतरा, मनुष्य धरिया नाँव।
एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव॥

पाँच तत्त्व के भीतरे, गुप्त वस्तु अस्थान।
बिरला ममे कोइ पाइहैं, गुरु के शब्द प्रमान।।

पाके, पकये, बिटप-दल, उत्तम, मध्यम, नीच।
फल नर लहै नरेस त्यों, करि बिचारि मन बीच॥

पात-पात कै सिंचिबो, बरी बरी कै-लोन।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु कौन॥

पात्र हृदय का माँजो धोलो।
दिव्य शक्ति वह तभी मिलेगी।।

पानि पियावत क्या फिरे, घर-घर सायर बारि।
तृषावन्त जो होयगा, पीवेगा झख मारि॥

पाप, ताप हर लेती सबके, गंगा की जलधार है।
सन्मति पा जाता गायत्री, गंगा से संसार है॥

पाप-पतन से आज मनुज को, पुनः बचाना है।
संस्कारों की परम्परा को पुनः चलाना है॥

पारस परसे कचन भौ, पारस कभी न होय।
पारस के असपरस ते, सवर्ण कहावै सोय॥

पारस रूपी जीव है, लौह रूप संसार।
पारस ते पारस भया, परख भया टकसार॥

पावन पर्व वसन्त कह रहा, हम उपास्य को भूल न जायें।
नहीं बहायें आँसू भी अब, सृजन कार्य का शंख बजायें॥

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन॥

पद्य-संग्रह पाषाण पूजने क्यों कर जाना पड़े हमें।
नर के स्वरूप में यदि नारायण मिल जायें॥

पास रहता हूँ तेरे सदा मैं अरे,
तू नहीं देख पाये तो मैं क्या करूँ।
मृग मूढ़ तुल्य चारों दिशाओं में तू,
ढूँढ़ने मुझको जाये तो मैं क्या करूँ॥

पिछले युग की बातें, हो गईं बहुत पुरानी।
हम सबको करनी है, फिर से नवयुग की अगवानी॥

पिता अधिकार है तुमको, हमें गिरि से गिराने का।
जलाशय में डुबाने का, औ पावक में जलाने का॥

पितु, मातु, सहायक, स्वामी, सखा।
तुम ही एक नाथ हमारे हो॥

पीड़ा पुकारती है देती न क्या सुनाई।
संवेदना हृदय की क्यों कर न जाग पाई॥

पी न सके जिस जल को कोई।
उस जल की जलधार वृथा है॥

पुरुषार्थ की कहानी, इतिहास गा रहा है।
सूरज सुना रहा है, चन्दा बता रहा है।।

पुकारती नयी धरा, पुकारता नया गगन।
नये मनुष्य के लिए, नवीन प्राण चाहिए।।

पुरुषारथ पूरब करम, परमेश्वर परधान।
तुलसी पैरत सहित ज्यों, सबहिं काज अनुमान॥

पुरुष कहला सकते हो, शक्ति-शौर्य के द्वारा।
मत भूलो नारी की श्रद्धा, ने ही तुम्हें संवारा॥

परुषो! नारी की महिमा की, नापो तो गहराई।
अपना हृदय गलाकर भी जिसने, रस धार बहाई॥

पूज्य चरणों में ही अब तो, बन गया घर द्वार मेरा।
आज उर की वेदना ही, बन गया आधार मेरा॥

पूरा साहेब सेइये, सब विधि पूरा होय।
ओछे से नेह लगाय के, मूलहु आवै खोय॥

पेट न फूलत बिनु कहे, कहत न लागै ढेर।
सुमति बिचारे बोलिये, समुझि कुफेर सुफेर॥

पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
एकै आखर पीव का, पढ़े सो पंडित होय॥

प्यार तुम्हारा ही तो माँ, इन गीतों में साकार हो गया।
बरसाया पीयूष मरुस्थल, सोने का संसार हो गया॥

प्यार तो है हमें जिंदगी से बहुत,
किन्तु जीना हमें हाय आता नहीं।
क्योंकि जिससे जिसे प्यार होता अधिक,
वह उसे व्यर्थ यूँ ही गवाता नहीं॥

प्यार है यदि श्रीराम के नाम से,
राम के काम करते चलें रात दिन॥

प्रकट कहौं तो मारिया, परदा लखै न कोय।
सहना छिपा पयार तर, को कहि बैरी होय॥

प्रगति पंथ पर एक साथ, सब मिलकर कदम बढ़ाओ।
जियो और जीने दो का, स्वर घर-घर में पहुँचाओ॥

प्रतिभाओं की बहुत जरूरत, हुई समय को आज है।
महाकाल ने तुम्हें लगाई, इसीलिए आवाज है॥

प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय॥

प्रथम एक जो हौं किया, भया सो बारह बान।
कसत कसौटी ना टिका, पीतर भया निदान॥

प्रभाती कोई दूर पर गा रहा है।
बढ़ो सामने युग नया आ रहा है।।

प्रभु के सुन्दर हैं सब नाम, सारा जग है उसका धाम।
जप लो राम राम राम, भजलो श्याम श्याम श्याम।।
प्रभु तुझमें मैं मिल जाऊँ, यह जीवन सुमन चढ़ाऊँ॥

प्रभु ते प्रभु गन दुखद लखि, प्रजहिं सँभारै राउ।
कर ते होत कृपान को, कठिन घोर घन घाउ।।

प्रभु समीप गत सुजन जन, होत सुखद सुविचारि।
लवन-जलधि-जीवन जलद, बरषत सुधा सुबारि॥

प्रभु समीप छोटे बड़े, निबल होत बलवान।
तुलसी प्रगट बिलोकिए, कर अँगुली अनुमान॥

प्रवासी रुक नहीं सकते, कभी मन के इशारे पर।
कदम हटते नहीं पीछे, पहुँचते हैं किनारों पर॥

प्रीति राम-पद नीति-रति, धरम प्रतीति सुभाय।
प्रभुहि न प्रभुता परिहरै, कबहुँ बचन-कन-काम।।

प्रीति बिरोध समान सन, करअ नीति असि आहि।
जो मृगपति बध मेडुकन्हि, भल कि कहइ कोउ ताहि।।

प्रेम न खेतों ऊपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥

प्रेम से जप लो प्रभु का नाम, लगन से करो उसी का काम।
बोलो राम सीताराम, बोलो श्याम राधेश्याम॥

प्रेमी भर तू प्रेम में, ईश्वर के गुण गाया कर।
मन मन्दिर में गाफिल तू, झाड़ रोज लगाया कर॥

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    अनुक्रम

  1. ज्ञ
  2. ट-ण

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